Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 101
________________ (८७) भव भीरको । वुधजन समता ल्यो पाचौगे, शिवपुर भवदधितीरको ।। गातां ॥२॥ (३१०) राग-खंमाच। यौही थान ओलंबो, हो जिय ज्ञानी॥ यो ही० ॥ टेक॥ रतन मनुषभव पाय कठिनते, सो नाहक क्यों खोयवौ ॥ यो ही० ॥१॥ प्रभु विसारि पर-कंचन-कामिनि, उर चितवत क्यों चोरिवी ॥ यो ही० ॥२॥ आपा आप सम्हारौ बुधजन, फेरि न ऑसर पायवौ ॥ यो ही० ॥३॥ (२११) राग-संमाच। पार के पार छ दिन पार है, विधि मोकौं दिन पार छ ॥ पारः ॥ टेक । अरघ मध्य पताल लोकम, फेरै छिन छिन सारै छ । मिश्र गृहीत अगृहीत प्रमाणो, ग्रहण करत उरझारै छै ।। पार० ॥१॥ कते कल्प गये तुम जानों, च्या छ अर मारेछ । जघन मध्य उत्कृष्ट आयु करि, गति गतिमाही डार छै॥पार० ॥२॥ अध्यवसाय नोगके सोई, सबै भाव विस्तारै छ । वुधजन चरन शरन दिन पकरी, दुख हरित्री थां-सारे छै॥ पारै० ॥३॥ (१२) गग-खंमाच। मान छ मान छ यों ही मान छ, मुरडॉट जी मुरख मान छ॥ मान० ॥ टेक ॥ जीव अरूपी रूपी तनकों,

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