Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
View full book text
________________
( ८४ )
क्यौं लुभायौ रे, तू तौ उलझत है जंजाल ॥ चेतन० ॥ टेक ॥ मनुष जनममैं आयबौ रे, सुलभ जगतमैं नाहिं । गयौ न मोती पायसी रे, सागरका जलमाहिं ॥ चेतन० ॥ १ ॥ राज विभौ जोवन तन सुंदर, रानी जुतसिंगार । जल बुदवद दामिनिका चमका, विनसत होत न वार ॥ चेतन० ॥२॥ नैन पतंग मतंग फरसतैं, मृग श्रवना आधार । अलि नासा सफरी रसनातैं, प्रान तजत निरधार ॥ चेतन० ॥ ३ ॥ पराधीन ये निश्चल नाहीं, आखिर होत गिलान । सेवनका फल नरक मिलत है, त्यागेतैं निरवान ॥ चेतन० ॥ ४ ॥ बुरी भली दोऊ कह दीनी, कर लै आप पिछान । ऐसा कारज करिये बुधजन, जामैं सदा कल्यान ॥ चेतन० ॥ ५ ॥
अनी ( ? ) मेरा नाभिनंदन जगवंदन स्वामी, पूजन काज चलै ॥ अनी० ॥ टेक ॥ मिलि साधरमी चलौ देहरे, उत्तम दरव सु लै ॥ अनी० ॥ १ ॥ करि पूजा प्रभुका गुन गावैं, निहचल होय भलै || अनी० ॥ २ ॥ भव भवमैं बुधजन सुख लै है, अनुक्रम मुक्ति मिलै ॥ अनी० ॥ ३ ((२०४)
राग - जंगलो ।
"या काया माया थिर न रहैगी, झूठा मान न कर रे ॥
१ मन्दिरको ।
( २०३ ) राग - झंझोटी ।
१६४ ॥

Page Navigation
1 ... 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115