Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 90
________________ (७६) ( १८१) राग-कनड़ी। श्रीजिनवर दरवार खेलूंगी होरी ॥ श्री जिन०॥ टेक।। पर विभावका भेष उतारूं, शुद्ध सरूप बनाय, खेलूंगी होरी ॥ श्रीजिन० ॥१॥ कुमति नारिकों संग न राखू, सुमति नारि बुलवाय, खेलूंगी होरी॥ श्रीजिन० ॥२॥ मिथ्या भसमी दूर भगाऊं, समकित रंग चुवाय, खेलूंगी होरी ॥ श्रीजिन० ॥३॥ निज रस छाक छक्यौ बुधजन अव, आनंद हरष वढ़ाय, खेलूंगी होरी ॥श्रीजिन०॥४॥ (१८२) राग होजी म्हारी याही मानूं काई मानूंजी प्रभूजी, ॥ होजी० ॥ टेक ॥ भव भवमैं तुम दरसन पाऊं, सुपर्ने और नहीं जानूं ॥ होजी० ॥१॥ काल अनादि गयौ भटकत ही, अव तौ करमनकौं भानूं। तुम विन मेरी कहौ कहुं कासौं, वुधजन मांगे शिवथानूं ॥ होजी० ॥२॥ (१८३) राग-कनड़ी। (पंजावी) मग वतलाना मानूं मोखिदा हो साइंयांमगाटेक।। तेंडे चरन दानिवे, इक सरना मेरे ताई, ओरतें नाहिं पुकारना, हो साइंयां ॥ मग० ॥ १॥ भवदधि भारीतें तूहि उतस्या मेरे सांई, मैंनूं भी पार उतारना, हो साइयां ॥ मग० ॥२॥ वुधजन चेराकों विधि जकस्खा दुखदाई, हाथ पकरिके उवारना, हो साइयां ॥ मग० ॥३॥ १ मुझको । २ मोक्षका।

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