Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 94
________________ (८०) लाया मेरा ठाम । सुखी रहत हूं दुख नहिं व्यापत, बुधजन हरपत आठौं जाम ॥ अष्ट० ॥ ४ ॥ ( १९२ ) राग- अलहिया बिलावल । वानी जिनकी बखानी, हो जी, थानें सब मुनि मनमैं आनी ॥ वानी० ॥ टेक ॥ मिथ्याभानी सम्यकदानी, म्हारा घटमैं वसौ हितदानी ॥ वानी० ॥ १ ॥ निश्चय ब्योहार जितावनहारी, नय निक्षेप प्रमानी । तुम जानै विन भववन भटक्यौ, करौ कृपा सुखदानी ॥ वानी० ॥ २ ॥ जिते तिरे भवि भवदधिसेती, तिन निश्चय उर आनी । अवहूं तिरिहै बुधजन तुमतैं, अंकित स्यादनिशानी ॥ वानी० ॥३॥ / ( १९३ ) राग - धनासरी । C . धारी थारी चेतन मति भोरी रे, तैं तौ अपनी आप हि वोरीरे ॥ धारी० ॥ टेक ॥ सिर डारै मोह ठगौरी रे, सँग राग दोष दो 'थोरी रे । तू रचि रह्यौ इनतें सोंरी रे, ये करत कहा तोसौं जोरी रे ॥ थारी० ॥ १ ॥ क्रोधादिक भाव बनावै रे, तातैं जन्म मरण दुख पावै रे । यौ औसर गुरु समझावै रे, जो मानें तौ वचि जावै रे ॥ थारी ० ॥ २ ॥ द्रव थान काल ले आया रे, भावी न अन्यथा थाया रे । जो बुधजन धीरज लाया रे, सो अविचल सुखको पाया रे ॥ थारी० ॥ ३ ॥ १ दुष्ट |

Loading...

Page Navigation
1 ... 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115