Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(७४) पदमाही, निसिदिन ध्यान लगावै । जन्म सुफल वुधजन तव व्है है, जब छवि नैन लखावै ॥ ताकी० ॥३॥
(.१७७) - भई आज वधाई, निरखत श्रीजिनराई। भई० ॥टेक॥ गया अमंगल पाया मंगल, जन्म सुफल भया भाई॥भई० ॥१॥ तीनलोककी सारी सम्पति, अर सारी ठकुराई।
ठकुराई ।
कटाछ होत ही, मेरी
मेरी मुझमें पाई ॥ भई०
॥२॥ इन विन राचे भोग विसनमैं, तातै विपदा लाई। अव भ्रम नास्या ज्ञान प्रकास्या, पिछली वुध विसराई ॥ भई० ॥ ३॥ सवहितकारी परउपगारी, गनधर वानि वताई । वुधजन अनुभव करके देखी, सांची सरधा आई ॥ भई०॥४॥
(१७) भये आज अनंदा, जनमें चंद्रजिनंदा ॥ भये० ॥टेक। चतुर-निकाय देव मिलि आये, इन्द्र भया है बंदा भये ॥१॥ महासेन घर मात लछमना, उपजाया सुख कंदा। जाके तनमें बड़ी जोति अति, मलिन लगे है चंदा ॥ भये० ॥२॥ अव भविजन मिलि सुख पावेंगे, कटिहैं कर्मके फंदा। याहीके उपदेश जगतमैं, होगा ज्ञान अमंदा॥भये०
॥३॥ धन्य घरी धनि भाग हमारा, दूर भया दुख 'दंदा । वुधजन वारवार इम भाषे, चिरजीवौ यह नंदा ।
२०॥४॥

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