Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(७२) तीनलोक सिरताजा । आप सारिसा करि वुधजनकौं, तुमकौं मेरी लाजा ॥ वीतराग० ॥४॥
(१७२)
राग-सोरठ। क्यों रे मन तिरपत है नाहि कोय ॥ क्यों०॥ टेक ।। अनादि कालका विषयन राच्या, अपना सरवस खोय ॥ क्यौं० ॥१॥नेकु चाखकै फिर न वाहुरे, अधिका लपटै जोय । झंपापात लेत पतंग ज्यौं, जलि वलि भस्मी होय ॥ क्यौं० ॥२॥ ज्यौं ज्यौं भोग मिलै त्यौं तृष्णा, अधिकी अधिकी होय । जैसैं घृत डारेरौं पावक, अधिक जरत है सोय ॥ क्यौं० ॥३॥ नरकनमाही भव सागर लौं, दुख भुगतैगो कोय । चाहि भोगकी त्यागौ वुधजन, अविचल शिवसुख होय ॥ क्यौं ॥४॥
(१३) मूनें थे तौ तारौ श्रीजिनराज, यौँ ही थांकौ जस सुणिजे छै ॥ मू३० ॥ टेक ॥ तारन तरन सुभाव रावरो, सब 'जग जनकै मुख भणिजे छै ॥ मू३० ॥१॥ चोर चिंडाल । भील वेश्याकौं, त्यार दये अवलौं कहिजे छै । अव औसर 'मेरा है प्रभु जी, यामैं ढील नहीं कीजे छै ॥ मू०॥२॥ भव सागरमैं मोह मगर मछ, पकड़ रह्यौ म्हारौ चित छीजे छै । पार उतारौ अब वुधजनकौं, शरनागतकी सुधि लीजे छै॥ मून० ॥३॥
(१७४ ) 0 अजी मैं तौ हेस्या षटमतसार, दयासवमैं सिरै ॥ अजी०

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