Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 85
________________ ( ७१ ) (०१७० ) राग - झंझोटी । मानुष भव अब पाया रे, कर कारज तेरा ॥ मानुष० ॥ टेक ॥ श्रावकके कुल आया रे, पाया देह भलेरा । चलन सितावी होयगा रे, दिन दोय वसेरा ॥ मानुष० ॥ १ ॥ मेरा मेरा मति कहै रे, कह कौन है तेरा । कष्ट पड़ै जब देहपै रे, कोई आत न नेरा ॥ मानुप० ॥ २ ॥ इन्द्रीसुख मति राच रे, मिथ्यातॲधेरा । सात विसन दे त्याग रे, दुख नरक घनेरा ॥ मानुष० ॥ ३ ॥ उरमै समता धार रे, नहिं साहब चेरा । आपाआप विचार रे, मिटिज्या गतिफेरा ॥ मानुष० ॥ ४ ॥ ये सुध भावन भावै रे, बुधजन तिनकेरा | निस दिन पद वंदन करै रे, वे साहिव मेरा ॥ मानुप० ॥ ५ ॥ (०१७१) राग - जंगलौ । ] वीतराग मुनिराजा मोकौं दरस बता जा, दरसवती जा धरम सुना जा ॥ वीतराग० ॥ टेक ॥ परिगृह रत नं नगन छवि थांकी, तारनतरन जिहाजा ॥ वीतराग० ॥ १ ॥ जीवन मरन विपति अर संपति, दुख सुख किंकर राजा । सवमैं समता रमता निजमै, करत आपनौ काजा ॥ वीत - राग० ॥ २ ॥ तन कारागृह भोग भुजॅगसा, परिकर शत्रु समाजा । ऐसी जानि त्याग वन वसिकै, राखत धर्म इलाजा ॥ वीतराग० ॥ ३ ॥ कर्मविनासी मुनि वनवासी,

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