Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 84
________________ (७०) रीमैं । नेमिजी० ॥३॥ एकाकी वनमें जा बसिके, ध्याऊंगी दिन राती रातीरी मैं ॥ नेमिजी०॥४॥ वुधजन गावै सो सुख पावै, या रजमतिकी वाती, बाती री मैं ॥ नेमिजी० ॥५॥ (१६८) । जिनगुन गाना मेरे मन माना ॥ जिन० ॥ टेक ॥ जिन ध्याया तिन शिवपुर पाया, सुख अनन्तका थाना । जिन० ॥१॥ भरम मिट्या तिनका छिनमाही, निज परमातम आना ॥ जिन० ॥२॥ आन ज्ञानतें गति गति भटका, जनम मरन दुख पाना | जिन० ॥ ३ ॥ अव वुधजन कहुँ नाहिंन भटकै, चरन शरन मिल जाना । जिन०॥४॥ (१६९) राग-जंगलो। मुझे तुम शान्त छबी दरसाया, देखत आनंद आया । मुझे० ॥ टेक ॥ अंदर बाहर परिगृह नाही, नासा दृष्टि लगाया ॥ मुझे० ॥१॥ मैं हेरा संसार समूचा, तोसा निरख न पाया । मुझे०॥२॥ नाहर सूर बिलाव ऊंदरा, इकठे मिलि बतराया । मुझे० ॥३॥ तपत हमारी जीव अनादी, सीतल समता पाया ॥ मुझे०॥४॥ इंद नरिंद फनिंद मुनिंद मिल, चरन कमल सिर नाया ॥ मुझे० ॥ -५॥ धन्य दिवस धनि भाग हमारे, वुधजन तुम गुन ।। मुझे०॥६॥

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