Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 83
________________ ( ६९ ) हौ ० ॥ टेक ॥ अव ही अपूरव आनंद आयो, जिनदरसनतैं लाहौ ॥ उमाहौ० ॥ १ ॥ तन कारागृह आशा बेड़ी, सुत तिय साथ उगाही । रोग सोग डर त्रास होत नित, सब छूटनको चाहौ ॥ उमाहौ० ॥ २ ॥ भव वन सघन कठिन अँधियारौ, जन्म मरनकौ दाहौ । श्रीगुरु शरन मिल्यो बुधजनकौँ, अब संगय रह्यौं काहौ ॥ उमाहौ० ॥३॥ (०१६६ ) राग-विलावल | रे मन मूरख बावरे मति ढीलन लावै । जप रे श्रीअरहन्तकों, यौ औसर जावै ॥ रे मन० ॥ टेक ॥ नरभत्र पाना कठिन है, यौं सुरपति चाहै । को जानै गति कालकी, यौ अचानक आवै ॥ रे मन० ॥ १ ॥ छूट गये अब छूटते, जो छूट्या चावै । सब छूटैं या जाल, यौं आगम गावै || रे मन० ॥ २ ॥ भोग रोगकौं करत हैं, इनकौं मत लावै । ममता तजि समता गहौ, बुधजन सुख पावै ॥ रे मन० ॥ ३ ॥ (०१६७) राग-झंझौटी | ܐ A ク 3 मिजी के संग चली जाती जाती री मैं ॥ नेमिजी० ॥ टेक ॥ वा छिन खबर भई नहिं मोकौं, तातें मैं पछताती; पछताती री में ॥ नेमिजी० ॥ १ ॥ यौ जंजाल कुटुंब परिजन सत्र, कोइ न मेरे साती; साती री मैं ॥ नेमिजी० ॥२॥ या घर भीतर छिन हू बसिवौ, दावानलसी ताती; ताती

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