Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(६७) वुधजन आप जिहाज वैठिक, भवदधि-वारि तिरौला ॥ हो० ॥३॥
(१६०) हूं तौ निशिदिन सेऊ थांका पाय, म्हारौ दुख भानौ ॥ १० ॥ टेक ॥ चौरासीमें डोलती जी, नीठि पहुँच्यौ छौं आय ॥ म्हारो० ॥१॥ आन देवकों सेवतां जी, जनम अकारथ जाय ।। म्हारो० ॥२॥ मन वच तन वंदन करूंजी, दीजै कर्म मिटाय ॥ म्हारो० ॥३॥ वुधजनकी या वीनती जी, सुनिज्यौ श्रीजिनराय ॥ म्हारो० ॥४॥
(१६१)
राग-अडाणी। तुम चरननकी शरन, आय सुख पायौ ॥ तुम० ॥ टेक ॥ अवलों चिर भव वनमें डोल्यौ, जन्म जन्म दुख पायौ ॥ तुम० ॥१॥ ऐसो सुख सुरपतिकै नाहीं, सौ मुख जात न गायौ । अव सव सम्पति मो उर आई, आज परमपद लायौ ॥ तुम० ॥२ ॥ मन वच तनतें पूजनले राखौं, कबहुँ न ज्या विसरायो । वारंवार वीनवै न, कीजै मनको भायौ ॥ तुम० ॥३॥
(१६२)
राग-टोंगी। तपताज सुखदाई वधाई, जनमैं चन्दजिनाई ॥ आज०.
१.॥ महासेन घर चंदपुरीमैं, जाये लछमना माई ॥ हज० ॥१॥ चतुरनिकाय देव देवी मिलि, नाचत गावत आई । अव भविजनके पातक टरि हैं, पथ चलि है
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