Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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. रही गाठी, ज्ञान छुरीसौं छोलौं ॥ म्हारा० ॥ १ ॥ अष्ट करम ज्ञानावरनादिक, मो आतम ढिग जौलौं । राग दोप विकलप नहिं त्यागौं, तोलौं भव वन डोला || म्हारा० ॥२॥ भेद विज्ञानकी दृष्टि भई तव, परपद नाहिं टटोलों । विषय कपाय वचन हिंसाका, मुखत कबहुँ न बोलीं ॥ म्हारा० ॥ ३ ॥ धन्य जथारथवचन जिनेसुर, महिमा वरनौ कोलौं । बुधजन जिनगुनकुसुम गूंथिंक, विधिकरि कंठमें पोलौं || म्हारा० ॥ ४ ॥
( १५६ )
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• राग - संमाच झंझोटी । ❤
पूजन जिन चालौ री मिल साथनि ॥ पूजन० ॥ टेक ॥ आज देहाड़ौ है भला, आवौं जिन आंगनि ॥ पूजन० ॥ १ ॥ आठौं दृव्य चहोड़िकै, कीये गुन भापनि । अपना कलमख खोय हैं, करि हैं प्रतिपालनि ॥ पूजन० ॥ २ ॥ चित चंचलता मेटिकै लागी प्रभु पॉयनि । सव विधि मनवांछा मिले, फिरि होहि न चायनि ॥ पूजन० ॥ ३ ॥
तिहारी याद होते ही, मुझे अम्रत वरसता है । जिंगर तपता मेरा भ्रमसों, तिसैं समता सरसता है ॥ तिहारी ० ॥ १ ॥ दुनीके देव दाने सत्र, कदम तेरे परसता हैं । ति हाने रस देखनको, हजारों चंद तरसता है ॥ तिहारी ०
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(०१५७)
रंगा-रेखता ।
व आहेन । २ हृदय ।

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