Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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( १५)
सुत-चंद्रकुंवरजू, राज लह्यौ सुख साज । वधाई० ॥१॥ सनमुख नृत्यकारिनी नाचत, होत मृदंग अवाज । भैंट करत नृप देश देशके, पूरत सवके काज ॥ वधाई० ॥२॥ सिंहासनपै सोहत एसो, ज्यों शशि नखंत समाज । नीति निपुन परजाको पालक, वुधजनको सिरताज ॥ वधाई ॥३॥
(३३). ___ राग-लूहरि सारंग। अरज करूं (तसलीम करूं) ठाडो विनऊं चरननको चेरो। अरज०॥ टेक ।। दीनानाथ दयाल गुसाई, मोपर करुना करिकै हेरो। अरज० ॥१॥ भव वनमै निरवल मोहि लखिके, दुष्टकर्म सब मिलिके घेरो। नाना रूप वनाकै मेरो, गति चारोंमें दयो है फेरो ॥ अरज० ॥२॥ दुखी अनादि कालको भटकत, सरनो आय गह्यो मैं तेरो । कृपा करो तो अब वुधजनपै, हरो वेगि संसार वसेरो ।। अरज०॥३॥
(३४)
तथानिजपुरमै आज मची होरी ॥ निज० ॥ टेक ॥ उमॅगि चिदानंदजी इत आये, इत आई सुमती गोरी ॥ निज० ॥१॥ लोकलाज कुलकॉनि गमाई, ज्ञान गुलाल "मी झोरी ॥ निज० ॥२॥ समकित केसर रंग वनायो,
रितकी पिचुकी छोरी ॥ निज० ॥३॥ गावत अजया कर नक्षत्र तारागण । २ प्रजा । ३ कुलकी लाज ।
व्र
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