Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(४९) लाख जॉनि तैन, केई वार धरी । तू निजसुभाव पागिकै, पर त्याग ना करी। नर० ॥१॥तू आन देव पूजता है, होय लोभमें । तू जान पूछ क्यों पर, हैवान कूपमें ॥ नर० ॥२॥ है धनि नसीव तेरा जन्म, जैनकुल भया । अवतो मिथ्यात छोड़ दे, कृतकृत्य हो गया । नर० ॥३॥ पूरवजनममें जो करम, तूने कमाया है । ताके उदको पायके, सुख दुःख आया है । नर० ॥ ४ ॥ भला बुरा मान मती, तू फेरि फॅसैगा । वुधजनकी सीख मान, तेरा काज सधगा ॥ नर० ॥५॥
(११) ऋपभ तुमसे स्वाल मेरा, तुही है नाथ जगकेरा ॥ऋ. पभ० ॥ टेक ।। सुना इंसाफ है तेरा, विगरमतलब हितू मेरा ॥ तपभ० ॥१॥ हुई अर होयगी अव है, लखो तुम ज्ञानमें सब है । इसीसे आपसे कहना, औरसे गरज क्या लहना ॥ ऋपभ०॥ २॥ न मानी सीख सतगुरकी, न जानी बाट निज घरकी। हुआ मद मोहमें माता, घने विपयनके रंग राता ॥ ऋपभ० ॥३॥ गिना परद्रव्यको मेरा, तवं वसु कर्मने घेरा । हरा गुन ज्ञान धन मेरा, करा विधि जीवको चेरा ॥ ऋपभ० ॥ ४ ॥ नचावै स्वांग रचि मोकॉ, कहूं क्या खवर सब तोकों । सहज भइ वात अति वॉकी, अधमको आपकी झॉकी ।। ऋपभ० ॥ ५ ॥ कहूं क्या तुम सिंफत सांई, बनत चर्हि इन्द्रसों गाई ।
१ सवाल-याचनाका प्रश्न- २ प्रगमा।

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