Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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काल अनन्ता, भव भव क्यों छीजे । वुधजन जिनपद सेय सयान, अजर अमर जीजे ॥३॥
(१३२)
राग-गौड़ मल्हार। सुरनरमुनिजनमोहनको मोहि, दर्शन देखन दैरी ॥ भव भरमनते दुखी फिरत हूं, अव जिन चरनन रहने दै॥ सुर० ॥१॥ सूर स्याल कपि सिंह न्यौलकी, विपति हरी इन सरनों दै । वलिहारी वुधजन या दिनकी, बड़े भाग पद परसन दै ।। सुर० ॥२॥
(१३३)
राग-रेखता। अरज जिनराज यह मेरी, इसा औसर वतावोगे । अरज० ॥ टेक ॥ हरो इन दुष्ट करमनको, मुकतिका पद दिलावोगे ॥ अरज०॥१॥ करूं जव भेप मुनिवरका, अवर विकलप विसारूंगा। रहूंगा आप आपेमें, परिग्रहको विडारूंगा ॥अरज० ॥२॥ फिऱ्या संसार सारमें, दुखी में सव लख्या दुखिया । सुनत जिनवानि गुरुमुखिया, लख्या चेतन परम सुखिया ॥ अरज० ॥३॥ पराया आपना जाना, बनाया काज मन माना । गहाया कुगति तैखाना, लहाया विपति विललाना ॥ अरज०) ॥४॥ जगतमें जनम अर मरना, डरा में आ लिया शरना । मिहर वुधजनपै या करना, हरो परते ममत धरना ।। अरज० ॥५॥

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