Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 76
________________ (६२) मोखि मिला दे जीव ॥ निरखि०॥३॥ वुधजन सहजै सुरगति देहे, बहुरि अनॅत सुख द्यावै जीव ॥ नि'रखि० ॥४॥ (१४८) तुम विन जगमैं कौन हमारा ॥ तुम०॥ टेक ॥ जौलौं 'स्वारथ तौलौं मेरे, विन स्वारथ नहिं देत सहारा। और न कोई है या जगमैं, तुम ही हौ सवके उपगारा ॥ तुम० ॥ २॥ इंद नरिंद फनिंद मिलि सेवत, लखि भवसागरतारनहारा ।। तुम० ॥३॥ भेद विज्ञान होत निज परका, संशय भरम करत निरवारा ।। तुम०॥ ४ ॥ अनेक जन्मके पातक नासे, बुधजनके उर हरम अपारा ।। तुम० ॥५॥ (१४९) निसि दिन लख्या कर रे; तन मन वचन थिर रे। ये ज्ञानमइ जिनराजकौं, ज्यौं है सुफल मन रे ॥ निसि० ॥ टेक ॥ ये भवि तेरा धन रे, तोकौं मिले जिन रे। कर पूज चरननकी सदा, सॅचि पुन्यका धन रे ॥ निसि० ॥१॥ सुनिक वचन जिन रे, सरधान धरि उर रे। करि जन्म तेरेका भला, या भली है छिन रे ॥ निसि० ॥ २॥ वुधजन कहै सुन रे, सव पापकों हन रे । अव मिल्या औसर है भला, करि जाप जिन जिन रे । निसि०॥३॥ , मनुवो लागि रह्यौ जी, मुनिपूजा विन रह्यौ न जाय

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