Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 75
________________ ( ६१ ) भव वन चौरासी वीच, भ्रमतौ फिरत नीच, मोह जाल फंद पर्यो, जन्म मृत्यु पावौ रे ॥ उठौ ० ॥ २ ॥ आरज पृथ्वीमैं आय, उत्तम जनम पाय, श्रावक कुलको लहाय, मुक्ति क्यौं न जावौ रे ॥ उठौ० ॥ ३ ॥ विषयनि राचि राचि, बहुविध पाप सांचि, नरकनि जायके, अनेक दुःख पावौ रे || उठौ० ॥ ४ ॥ परकौ मिलाप त्यागि, आतमके जाप लागि, सुबुधि बतावै गुरु, ज्ञान क्यौं न लावौ रे ॥ उठौ० ॥ ५ ॥ (१४६ ) राग भैरवी ।" यौ करौ उपगार मोपै ॥ यौ० ॥ टेक ॥ अनॅतकालके करम देत दुख, ये नहिं मिटत मिटाये मोपै ॥ यौ० ॥१॥ ज्यावत मारत जा जा गतिमै, ता ता गतिमैं फेरी रोपैं । इन करमनको नाश कियौ तुम, यातें करत निहोरे तोपैं ॥ यौ० ॥ २ ॥ दीनदयाल कृपा हि करोगे, मोमैं हैं अपराध हि जोपै । हरौ कर्ममल बुधजनको सव, ज्यौं जगमगती जोती ओपै ॥ यौ० ॥ ३ ॥ ( १४७ ) • राग-झिंझोटी | निरखि छवी परमेसुरकी कांई, नमिकरि दोष गमो दे जीव ॥ निरखि ० ॥ टेक ॥ भ्रमत भ्रमत गति गतिके माहीं, बड़े भाग भए लादे जीव ॥ निरखि० ॥ १ ॥ आन जॅजाल त्यागि मन मेरा, इनके चरन लगा दे जीव ॥ निरखि० ॥ २ ॥ जन्म मरनकी विपति मिटैगी, तोकौं

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