Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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निवि मिली अघार जी ॥ सुनः॥१॥ मंगय भर्म विप. जय नासा, मन्यक बुधि उपजाय जी || सुन० ॥२॥ अब निरभयपद पाया उरमें वर्दी मन वत्र काय जी|सुनः ॥३॥ नरभव सुफल भया नब मेरा, वुधजन भैंटत ‘पाय जी ।। सुन० ॥३॥
(४)
र अल्ल्या बिलावल। गाफिल हूवा क्या तू डोले, दिन जाता है भरतीमें "गाफिल।क।चौकस करी रहत है नाही, चों अँजुली जल झरतीमैं । एनं तेरी आयु घटत है, बचे न बिरियां मरतीम ॥ गाफिल०॥१॥ कंठ व तब नाहिं बनेगा, नाज बना ले नरती। फिर पछताये कडून होगा, कृप सुदै नहिं बरतीम ।। गाफिल०॥२॥मानुष भव तरा श्रावक कुल, कठिन मिल्या है धरतीम । बुवजन भवधि उतरी चर्दिक, समनित नवका तिरतीम ।। गाफिल०॥३॥
(१४२) सुमरी क्यों ना चन्द जिनमुर, ज्या भवभवकी विपति हरी । मुमरी०॥ टेक ।। सुरपति नरपति पूजत जिनकी, सन्मुख फनपति नमत वरौ ॥ सुमरो० ॥१॥ तन धन परिजन-मांझ लुमाकर, क्यों करमनके फंद परी ।। सुमरी० ॥२॥ मिथ्या तिमिर अनादि रोग हग, दरसन करिक परौ करो। सुनरी० ॥३॥ विषय भोगमैं रात्रि रह क्यों, यातें गति गति विपति भरौ ।। सुमरी०॥४॥ बुधजन

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