Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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( ६० )
आतम ध्यान नाव चढ़ि, भवसागरकौं बेगि तिरौ ॥ सुमरौ० ॥ ५ ॥
( ० १४३ ) राग-लूहरि सारंग । {"
प्रभु जी चन्द जिनंदा म्हें तौ थांका चरनन बंदा ॥ प्रभु जी० ॥ टेक ॥ अनादिकालके देत करम दुख, डारि नंदके फंदा ॥ म्हें तौ० ॥ १ ॥ क्रोध लोभ मद मान हिया मैं, कर राख्या है गंदा | ज्ञान ध्यान धन खोसि हमारौ, कर दीना है जिंदा ( १ ) ॥ म्हें तौ० ॥ २ ॥ वारंवार बीनवै वुधजन, करौ करमक मंदा । तुम गुन गाऊं और न ध्याऊं, पाऊं शिव सुखकंदा || म्हें तौ० ॥ ३ ॥
( १४४ )
'चन्द जिन नाथ हमारा, भविनकौं पार उतारा जी । • ॥ चंद० ॥ टेक ॥ तीन काल परजाय द्रव्य गुन, एक समयमैं जानत सारा ॥ चंद० ॥ १॥ इंद नरिंद मुनिंद फनिंदा, सेवत मिलिमिलि सारा । जाकी दुति सम कोटि चंद नहिं, करि लीना निरधारा ॥ चंद० ॥ २ ॥ ऐसा और कोइ नहिं मिलिया, हेरा सब संसारा । बुधजन वंदत पाप निकंदत, तारन तरन निहारा || चंद० ॥ ३ ॥
(९१४५) राग - भैरौं ।
उठौ रे सुज्ञानी जीव, जिनगुन गावौ रे ॥ उठौ० ॥ क ॥ निसि तौ नसाय गई, भानुकौ उद्योत भयौ, ध्यालगावौ प्यारे, नीदकौं भगावौ रे || उठौ० ॥ १ ॥
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