Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 64
________________ i ( ५० ) तिरे भविजीव भव सरतें, तुम्हारा नाव उर धरतें ॥ ऋपभ० ॥ ६ ॥ मेरा मतलब अवर नाहीं, मेरा तो भाव मुझमाहीं । वाहि पर दीजिये थिरता, अरज वुधजन यही करता ॥ ऋषभ० ॥ ७ ॥ ( १२३ ) दुनियांका ये हवाल क्यों पहिचानता नहीं । दिन आफतव ऊगा, सो रैनको नहीं || दुनि० ॥ टेक ॥ तनसेति तेरी एकता, क्यों भानता नही । होता है जाना स्यात स्यात, जानता नहीं ॥ दुनि० ॥ १ ॥ नित भूख प्यास शीत धाम, देह व्यापतैं । तू क्यों तमोशवीन दुखी, मान आपतैं | दुनि० ॥ २ ॥ दिलंचंदगी दिलेंगीरी व्है निज, पुन्य पापतैं । (फिर) करमजाल फँसता क्यों, करि विलाप तैं ॥ दुनि० ॥ ३ ॥ मतलव गरजी ये सब, कुटुंब घरभरा मतवाय चढ़ी तेरे, किन सीर ना करा | दुनि० ॥ ४ ॥ इनकी खुशामदीसे, तू केई वार मरा । इतना सयान लीजे, इन वीच क्यों परा ॥ दुनि० ॥ ५ ॥ आई हैं बुलबुल शॉमको, सब ओर ओरतें । करि रैनका वसेरा, 'बिछुरेंगी भोरतें || दुनि० ॥ ६ ॥ इनपै न नेकु रीझो, खीजो न जोरतें । भोगोगे विपति भौ भौ, मिथ्यात दौर - तैं | दुनि० ॥ ७ ॥ वाजीगरोंका ख्याल जैसा, लोकस'स्पदा | इसके दिमाकसेती, दोजकमें झंपदा ॥ दुनि० ॥ ६ १ सूर्य । २ तमाशा देखनेवाला । ३ खुशी । ४ रज । ५ सध्याको । घमंडसे |

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