Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 61
________________ (४७) महाराज० ॥ टेक ॥ मैं तो थारी अद्भुत रीती, नीहारी हितकारी ।। महाराज ॥१॥ निंदक तो दुख पावै सहजे, वंदक ले सुख भारी। असी अपूरव वीतरागता, तुम छविमाहिं विचारी ॥ महाराज० ॥२॥राज त्यागिक दीक्षा लीनी, परजनप्रीति निवारी । भये तीर्थकर महिमाजुत अव, संग लिये रिधि सारी ॥३॥ मोह लोभ क्रोधादिक मारे, प्रगट दयाके धारी । वुधजन विनवै चरन कमलको, दीजे भक्ति तिहारी ॥ महाराज०॥४॥ (१०७) मुनि वन आये बना । मुनि० ॥ टेक ॥ शिव वनरी व्याहनको उमगे, मोहित भविक जना ॥ मुनि० ॥१॥ रतनत्रय सिर सेहरा वांधे, सजि संवर वसनासंग वराती द्वादश भावन, अरु दशधर्मपना ।। मुनि० ॥२॥ सुमति नारि मिलि मंगल गावत, अजपा (१) गीत घना । राग दोपकी अतिशवाजी, छूटत अगनि-कना । मुनि० ॥३॥ दुविधि कर्मका दान वटत है. तोपित लोकमना । शुकल ध्यानकी अगनि जला करि, होम कर्मघना ॥ मुनि०॥४॥ शुभ वेल्यां शिव वनरि वरी मुनि, अदभुत हरप बना। निज मंदिर, निश्चल राजत, वुधजन त्याग घना ॥ मुनि० ॥५॥ (१९८) लख जी आज चंद जिनंद प्रभूकों, मिथ्यातम मम भागौ ॥ लखें टेक ॥ अनादिकालकी तपति मिटी सव,

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