Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 59
________________ (१५) कालोकालोक निद्वारक खामी. द न हमारियां ॥ होती॥१॥ घट चालीनों गुन धारक, दोष अठारह टालियां बुधवन भरने आयी यांक, ये गरणागत पालियां हो जी ॥२॥ गर-परजा हनों भा राज यांनं अरज भरांछां, मानों महाराज ॥ ॥ टंक ।। कंवलज्ञानी त्रिभुवननामी, अंतरजामी सिरताज ।। न्हे ॥१॥नाह त्रु बोटी नंग लाग्यो, व. हुत र ई अनाजायात बेगि बचावा स्वानं, शन न्हाकी लाज ॥ हे॥२॥ चार डाल अनेक बार, गांव न्याल मृगराज | नौ बुवजन किंकरके हितम. बील कहा जिनराज ॥ न्हे ॥६॥ राग कालिंगड़ी। कुमतीको कारज कृती, हो जी ॥ कुमतीटेक॥ . यांकी नारि अगनी मुमती, मतो कह है रबाजी। कुन्नती० ॥ १॥ अनन्तानुबंधीकी जाइ, त्रांव लोभ मद भाई। माया बहिन पिता मिथ्यामत, या कुल कुमती पाईजी। कुमती० ॥२॥ घरको ज्ञान धन वादि लुमात्र, राग दोष सजा । तब निवल लखि पकार करन रिस, गति गति नात्र नचात्र । कुनती० ॥३॥ या परिकरसों ममत निवारी, बुवजन नीर सन्तारी । घरममुना मुमती 5ग रात्री, मुक्ति महलम पधारी ।। कुमती॥४॥

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