Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(४३) वसतु जगतकी सारी, निज वश चाहै लया ।। मनुवा० ॥ १॥ जीरन चीर मिल्या है उदय वश, यो मांगत क्यों नया ॥ मनुवा० ॥२॥ जो कण वोया प्रथम भूमिमैं, सो कब औरै भया ॥ मनुवा० ॥३॥ करत अकाज आनको निज गिन, सुधपद त्याग दया ॥ मनुवा०॥४॥ आप आप चोरत विषयी है, वुधजन ढीठ भया ॥ मनुवा० ॥५॥
(१०६) भज जिन चतुर्विंशति नाम ॥ भजि० ॥ टेक ॥ जे भजे ते उतरि भवदधि, लयौ शिव सुखधाम ॥ भज०॥ १॥ ऋषभ अजित संभव स्वामी, अभिनंदन अभिराम । सुमति पदम सुपास चंदा, पुष्पदंत प्रनाम ।। भज० ॥२॥ शीत श्रेयान् वासुपूजा, विमल नन्त सुठाम । धर्म सांति जु कुंथु अरहा, मल्लि राखै माम ॥ भज० ॥ ३ ॥ मुनिसुवृत नमि नेमिनाथा, पार्स सन्मति स्वाम । राखि निश्चयजपो वुधजन, पुरै सवकी काम ॥ भज० ॥ ४ ॥
(१०७)
राग-मालकोस। अव तू जान रे चेतन जान, तेरी होवत है नित हान ।। अव० ॥ टेक ॥ रथ वाजि करी असवारी, नाना विधि भोग तयारी । सुंदर तिय सेज सँवारी, तन रोग भयौ या ख्वारी ॥ अव० ॥१॥ ऊंचे गढ़ महल बनाये, वहु तोप सुभट रखवाये । जहाँ रुपया मुहर धराये, सब

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