Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 56
________________ (४२) अशोक अनूप, शोक सरव जनकौ हरै। उपमा कहिय न जाय, वुधजन पद वंदन करै । आनँद ॥८॥ (१०३) __. राग-विहाग। सीख तोहि भाषत हूं या, दुख मैंटन सुख होय ॥ सा. ख०॥ टेक ॥ त्यागि अन्याय कषाय विषयकौं, भोगि न्याय ही सोय ॥ सीख० ॥१॥ मंडै धरमराज नहिं दंडे, सुजस कहै सब लोय । यह भी सुख परभौ सुख हो है, जन्म जन्म मल धोय ॥ सीख० ॥२॥ कुगुरु कुदेव । कुधर्म न पूजौ, प्रान हरौ किन कोय । जिनमत जिनगु रु जिनवर सेवौ, तत्त्वारथ रुचि जोय ।। सीख० ॥ ३ ॥ हिंसा अँनृत परतिय चोरी, क्रोध लोभ मद खोय । दया दान पूजा संजम कर, वुधजन शिव है तोया सीख०॥४॥ (१०४) तेरौ गुन गावत हूं मैं, निजहित मोहि जताय दे॥ते. रौ० ॥ टेक ॥ शिवपुरकी मोकौं सुधि नाही, भूलि अनादि मिटाय दे ॥ तेरौ० ॥१॥ भ्रमत फिरत हूं भव वनमाही, शिवपुर वाट वताय दे । मोह नींदवश घूमत हूं नित, ज्ञान बधाय जगाय दे॥तेरौ० ॥२॥ कर्म शत्रु भव भव दुख दे हैं, इनतें मोहि छुटाय दे । वुधजन तुम चरना सिर नावै, एती वात वनाय दे ॥ तेरौ०॥३॥ (१०५) राग-विहाग। वावला हो गया ॥ मनुवा० ॥ टेक- परवश

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