Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 55
________________ (४१) ॥ टेक ॥ ठौर और सारे जग भटक्यौ, ऐसो मिल्यौ नहिं कोय । चंचल चित मुझि अचल भयो है, निरखत चरनन तोय ॥ म्हारो० ॥१॥ हरप भयो सो उर ही जानें, वरनौं जात न सोय । अनतकालके कर्म नसँग, सरधा आई जोय ॥ म्हारो० ॥२॥निरखत ही मिथ्यात मिट्यो सव, ज्या रविते दिन होय । वुधजन उरमें राजो नित प्रति, चरनकमल तुम दोय ॥ म्हारो० ॥३॥ (१००) गग-सोरठ। आनंद हरप अपार, तुम भैंटत उरमै भया ॥ आनंद० ॥ टेक ॥ नास्या तिमिर मिथ्यात, समकित सूरज ऊगिया। आनंद० ॥१॥ मिटि गयो भव आताप, समता रससौं सीचिया । जान्या जगत असार, निज नरभवपद लखि लिया ॥ आनंद० ॥२॥ परमौदारिक काय, शुद्धातम पद तुम धरे । दोप अठारे नाहिं, अनत चतुष्टय गुन भरे॥ ॥ आनंद० ॥३॥ उपजी तीर्थविभूति, कर्म घातिया सव हरे।तत्त्वारथ उपदेश, देव धर्म सनमुख करे। आनंद० ॥४॥ शोभा कहिय न जाय, सिंहासन गिर मेरसों 10 कलपवृक्षके फूल, वरपत हैं चहुंओरसौं ॥ आनंद ॥ ५॥ वाजत दुंदभि जोर, सुनि हरपत भवि घोरसौं । भामडल भव देखि, छूटत हैं भवि सोरसौ ॥ आनंद० ॥६॥ तीन छत्र निशि चंद, तीन लोक सेवा करें। चौसठ चमर सफेद, गंधोदकसे सिर ढरें ॥ आनंद० ॥ ७ ॥ वृक्ष

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