Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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अपरंपारा ॥ मेरा०॥१॥ अनत-चतुष्टय-धारक ज्ञायक, गुन परजै द्रव सारा । जैसा राजत गंधकुटीमें, तैसा मुझमें म्हारा ॥ मेरा० ॥२॥ हित अनहित मम पर विकलपते, करम वंध भये भारा। ताहि उदय गति गति सुख दुखमें, भाव किये दुखकारा || मेरा० ॥३॥ काल, लवधि जिनआगमसेती, संशयभरम विदारा । वुधजन जान करावन करता, हों ही एक हमारा ॥ मेरा० ॥४॥
(७)
राग गारो जल्द तेतालो। म्हारी भी सुणि लीन्यो, हो मोकों तारणा, सुफल भये लखि मोरे नैन । म्हारी० ॥ टेक ॥ तुम अनंत गुन ज्ञान भरे हो, वरनन करत देव थकत हैं, कहि न सके' मुझ वैन ॥ म्हारी० ॥१॥ हम तो अनत दिन अनत भरम रहे, तुमसा कोऊ नाहिं देखिये, आनंदघन चित चन ॥ म्हारी० ॥२॥ वुधजन चरन गरन तुम लीनी, वांछा मेरी पूरन कीजे, संग न रहे दुखदैन ॥ म्हां ॥३॥
(७७)
राग-गारो कान्हरो।' यांका गुण गास्यां जी आदिजिनंदा ॥ थांका०॥ टेक ॥ थांका वचन सुण्यां प्रभु मून, म्हारा निज गुण, भास्यां जी ॥ आदि० ॥१॥ म्हांका सुमन कमलमैं निहि दिन, थांका चरन वसास्यां जी ॥ आदि० ॥ २॥ मूनें लगन लगी छै, सुख द्यो दुःख नसास्यां जी॥

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