Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 44
________________ ( ३० ) ठगौरी धंदा ॥ सुनियो० ॥ १ ॥ कर्म दुष्ट मेरे पीछें लाग्यौ, तुम हो कर्मनिकंदा ॥ सुनियो० ॥ २ ॥ बुधजन अरज करत है साहिब, काटि कर्मके फंदा ॥ सुनियो० ॥३॥ (७३) राग - खंमाच । छवि जिनराई राजै है || छवि० ॥ टेक ॥ तरु अशोकतर सिंहासनपै, बैठे धुनि घन गाजै है || छवि० ॥ १ ॥ चमर छत्र भामंडलदुतिपै, कोटि भानदुति लाजै है । पुष्पवृष्टि सुर नभतैं दुंदुभि, मधुर मधुर सुर वाजे है ॥ छवि० ॥ २ ॥ सुर नर मुनि मिलि पूजन आवैं, निरखत मनड़ो छाजै छ । तीनकाल उपदेश होत है, भवि बुधजन हित काजै छै || छवि० ॥ ३ ॥ (७४) राग - खमाच । ऐसा ध्यान लगावो भव्य जासौं, सुरग मुकति फल पावो जी ॥ ऐसा० ॥ टेक ॥ जामैं बंध परै नहिं आगें, पिछले बंध हटावो जी || ऐसा० ॥१॥ इष्ट अनिष्ट कल्पना छांड़ो, सुख दुख एक हि भावो जी । पर वस्तुनिसौं ममत निवारी, निज आतम लौ ल्यावो जी ॥ ऐसा० ॥ २ ॥ मलिन देहकी संगति छूटै, जामन मरन मिटावो जी । शुद्ध चिदानंद बुधजन है कै, शिवपुरवास बसावो जी ॥ ऐसा० ॥ ३ ॥ - (hou) राग - खंमाच । "मेरा सांई तौ मोमैं नाहीं न्यारा, जानें सो जाननहारा ॥ मेरा० ॥ टेक ॥ पहले खेद सह्यौ विन जानें, अब सुख '

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