Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 46
________________ ( ३२ ) ॥ ३ ॥ वुधजन हरष हिये अधिकाई, शिवपुरवासा पास्यां जी || आदि० ॥ ४ ॥ (७८) राग-कान्हरो । हो मना जी, धारी वानि, बुरी छै दुखदाई ॥ हो० ॥ टेक ॥ निज कारिजमैं नेकु न लागत, परसौं प्रीति लगाई ॥ हो० ॥ १ ॥ या सुभावसौं अति दुख पायो, सो अब त्यागो भाई ॥ हो० ॥ २ ॥ वुधजन औसर भागन पायो, सेवो श्रीजिनराई ॥ हो० ॥ ३ ॥ (७९) राग - गारो कान्हरो । हो प्रभुजी, म्हारो छै नादानी मनड़ो || हो० ॥ टेक ॥ हूं ल्यावत तुम पद सेवनकौं, यो नहिं आवत है-बगडो जी ॥ हो० ॥ १ ॥ याकौ सुभाव सुधारि दयानिधि, माचि रह्यौ मोटो झगड़ो जी ॥ हो० ॥ २ ॥ वुधजनकी विनती सुन लीजे, कंहजे शिवपुरको डगड़ो जी ॥ हो ० ॥३॥ (co) 1 रे मन मेरा, तू मेरो कह्यौ मान मान रे ॥ रे मन ० ॥ टेक ॥ अनत चतुष्टय धारक तूही, दुख पावत बहुतेरा ॥ रे मन० ॥ १ ॥ भोग विषयका आतुर हैकै, क्यों होता है चेरा ॥ रे मन० ॥ २ ॥ तेरे कारन गति गतिमाहीं, जनम लिया है घनेरा ॥ रे मन० ॥ ३ ॥ : जिनचरन शरन गहि बुधजन, मिटि जावै भव ॥ रे मन० ॥ ४ ॥ ܐ

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