Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 47
________________ ( ३३ ) (८१) ज्ञान विन थान न पावोगे, गति गति फिरोगे अजान ॥ज्ञान० ॥ टेक ।। गुरुउपदेश लह्यौ नहिं उरमैं, गह्यौ नहीं सरधान ॥ ज्ञान० ॥१॥ विषयभोगमै राचि रहे करि, आरति रौद्र कुध्यान । आन-आन लखि आन भये तुम, परनति करि लई आन ॥ ज्ञान० ॥२॥ निपट कठिन मानुष भव पायौ,और मिले गुनवान । अव बुधजन जिनमतको धारो, करि आपा पहिचान ॥ ज्ञान० ॥३॥ (८२) राग-केदारो, एकतालो। अहो मेरी तुमसौं वीनती, सब देवनिके देव ॥ अहो. ॥टेक ॥ वे दूषनजुत तुम निरदूषन, जगत हितू स्वयमेव ।। अहो० ॥१॥ गति अनेकमैं अति दुख पायौ, लीनै जन्म अछेव । हो संकट-हर दे बुधजनकौं, भव भव तुम पदसेव ॥ अहो० ॥२॥ (८३) राग-केदारो।। याही मानौं निश्चय मानौं, तुम विन और न मानौं ॥याही०॥ टेक ॥ अवलौं गति गतिमैं दुख पायौ, नहिं लायौ सरधानौं ॥ याही० ॥१॥ दुष्ट सतावत कर्म नि तर, करौ कृपा इन्हें भानौं । भक्ति तिहारी भव भव। जौलौ लहाँ शिवथानौं। याही० ॥२॥

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