Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(९२)
राग-सोरठ। - कर ले हो जीव, सुकृतका सौदा कर लै, परमारथ कारज कर लै हो । करि० ॥ टेक ॥ उत्तम कुलकौं पायकै, जिनमत रतन लहाय । भोग भोगवे कारनैं, क्यों शठ देत गमाय ॥ सौदा० ॥१॥ व्यापारी वनि आइयौ, नरभव हाट बजार । फल दायक व्यापार करि, नातर विपति तयार ॥ सौदा० ॥२॥ भव अनन्त धरतौ फिस्यौ, चौरासी वनमाहिं । अव नरदेही पायकैं, अघ खोवै क्यों नाहिं ॥ सौदा० ॥ ३॥ जिनमुनि आगम परखकै, पूजौ करि सरधान । कुगुरु कुदेवके मानतें, फिखौ चतुर्गति थान ॥ सौदा० ॥४॥ मोह नींदमां सोवतां, हूवौ काल अटूट । वुधजन क्यों जागौ नहीं, कर्म करत है लूट ॥ सौदा० ॥५॥
राग-सोरठ। . बेगि सुधि लीज्यो मारी, श्रीजिनराज ॥ वेगि० ॥ टेक ॥ डरपावत नित आयु रहत है, संग लग्या जमराज ॥ वेगि० ॥१॥ जाके सुरनर नारक तिरजग, सब भोजनके साज।ऐसौकाल हस्यौ तुम साहब, यातें मेरी लाज॥बेगि० ॥२॥ परघर डोलत उदर भरनकौं, होत प्रात” सांज। डूवत आश अथाह जलधिमैं, द्यो समभाव जिहाज । वेगि० ॥३॥ घना दिनाको दुखी दयानिधि, औसर पायौ आज । बुधजन सेवक ठाड़ी विनवै, कीज्यौ मेरौ काज ॥ वेगि० ॥४॥

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