Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 42
________________ ( २८ ) नृत्य थया || देखो० ॥ ४ ॥ सो वानिक लखि बुधजन हरपै, जै जै पुरमें किया ॥ देखो० ॥ ५ ॥ > मैं देखा अनोखा ज्ञानी वे ॥ मैं० ॥ टेक ॥ लारें लागि आनकी भाई, अपनी सुध विसरानी वे ॥ मैं० ॥ १ ॥ जा कारनतें कुगति मिलत है, सो ही निजकर आनी वे ॥ मैं० ॥ २ ॥ झूठे सुखके काज सयानें, क्यौं पीड़े है प्रानी वे मैं ० ० ॥ ३ ॥ दया दान पूजन व्रत तप कर, बुधजन सीख वखानी वे ॥ मैं० ॥ ४ ॥ "" (२६८ ) राग - जंगलो | i मेरो मनुवा अति हरपाय, तोरे दरसनसौं ॥ मेरो० ॥ टेक ॥ शांत छवी लखि शांतभाव है, आकुलता मिट जाय, तोरे दरसनसौं ॥ मेरो० ॥ १ ॥ जब लौं चरन निकट नहिं आया, तव आकुलता थाय । अब आवत ही निज निधि पाया, निति नव मंगल पाय, तोरे दरसनसौं ॥ मेरो० ॥ २ ॥ बुधजन अरज करै कर जोरै, सुनिये श्रीजिनराय । जब लौं मोख होय नहिं तव लौं, भक्ति करूं गुन गाय, तोरे दरसनसौं | मेरो० ॥ ३ ॥ (०६९) मोहि अपना कर जान, ऋषभजिन ! तेरा हो ॥ मोहिο ॥ टेक ॥ इस भवसागरमाहिं फिरत हूं, करम रह्या करि घेरा हो ॥ मोहि० ॥ १ ॥ तुमसा साहिव और न मिलिया, सह्या भौत भटभेरा हो ॥ मोहि० ॥ २ ॥ बुधजन अरज करै निशि वासर, राखौ चरनन चेरा हो ॥ मोहि० ॥३॥ " ( ६ ७

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