Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 43
________________ (२९) (७०) । मैं तेरा चेरा, अरज सुनो प्रभु मेरा ॥ मैं० ॥ टेक ।। अष्टकर्म मोहि घेरि रहे है, दुख दे हैं वहुतेरा ॥ मैं०॥१॥ दीनदयाल दीन मो लखिकै, मैटो गति गति फेरा ॥ मै० ॥२॥ और जंजाल टाल सव मेरा, राखो चरनन चेरा॥ मैं० ॥ ३॥ वुधजनओर निहारि कृपा करि, विनवै वारंवेरा ॥ मे०॥४॥ (७१) राग-अहिंग। ते क्या किया नादान, ते तो अमृत तजि विप लीना॥ तैः॥ टेक ॥ लख चौरासी जौनिमाहिते, श्रावक कुलमैं आया। अव तजि तीन लोकके साहिब, नवग्रह पूजन • धाया ॥ तै० ॥१॥ वीतरागके दरसनहीतें, उदासीनता आवै। तू तो जिनके सनमुख ठाड़ा, सुतको ख्याल खिलावै ॥ तै० ॥२॥ सुरग सम्पदा सहजै पावै, निश्चय मुक्ति मिलावै । ऐसी जिनवर पूजनसेती, जगत कामना. चावै ॥ तें ॥३॥ वुधजन मिलें सलाह कहै तब, तू वा खिजि जावै। जथा जोगकों अजथा माने, जनम जनम दुख पावै ॥ तै० ॥४॥ (७२) राग-खंमाच । सुनियो हो प्रभु आदि-जिनंदा, दुख पावत है वंदा' ॥सुनियो०॥टेक॥ खोसि ज्ञान धन कीनौ जिंदा (), डारि - - - - - १ वारंवार ।

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