Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(१३) सेय, नरकविपै परना ॥ धर्म० ॥२॥ नृपके घर सारी सामग्री, ताकै ज्वर तपना । अरु दारिद्रीकै हू ज्वर है, पाप उदय थपना ।। धर्म ॥३॥ नाती तो स्वारथके साथी, तोहि विपत भरना । वन गिरि सरिता अगनि जुद्धमैं, धर्महिका सरना ॥ धर्म० ॥ ४॥ चित बुधजन सन्तोप धारना, पर चिन्ता हरना । विपति पड़े तो समता रखना, परमातम जपना ॥ धर्म० ॥५॥
(२८)
राग-टोडी ताल होलीकी। कंचन दुति व्यंजन लच्छन जुत, धनुप पांचसै ऊंची काया ॥ कंचन० ॥ टेक ॥ नाभिराय मरुदेवीके सुत, पदमासन जिन ध्यान लगाया ॥ कंचन०॥१॥ये तिन सुत व्योहार कथनमैं, निश्चय एक चिदानंद गाया। अपरस अवरन अरस अगंधित, वुधजन जानि सु सीस नवाया ।। कंचन० ॥२॥
(२९). धनि सरधानी जगमैं, ज्यो जल कमल निवास ॥धनि०० ॥ टेक ॥ मिथ्या तिमिर फट्यो प्रगट्यो शशि, चिदानंद परकास ॥ धनिः॥१॥पूरव कर्म उदय सुख पावें, भोगत ताहि उदास । जो दुखमैं न विलाप करै, निरवैर सहे तन त्रस ॥ धनि० ॥२॥ उदय मोहचारित परवशि है, द्र नहिं करत प्रकास । जो किरिया करि हैं निरवांछक, करें नहीं फल आस ॥ धनि० ॥३॥ दोपरहित प्रभु

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