Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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आनकी प्रीति सयाने, भली बनी या जोरी ॥ चेतन० ॥१॥ डगर डगर डोल है यो ही, आव आपनी पौरी' निज रस फगुवा क्यों नहिं वांटो, नातर ख्वारी तोरी ॥ चेतन० ॥ २ ॥ छोर कपाय त्यागि या गहि लै, समकित केसर घोरी । मिथ्या पाथर डारि धारि लै, निज गुलालकी झोरी ॥ चेतन० ॥३॥ खोटे भेप धरै डोलत है, दुख पावै वुधि भोरी । वुधजन अपना भेप सुधारो, ज्यों विलसो शिवगोरी ॥ चेतन० ॥४॥
(२४). राग-आसावरी जोगिया जल्द तेतालो। हे आतमा! देखी दुतितोरी रे॥ हे आतमा० ॥टेक।। निजको ज्ञात लोकको ज्ञाता, शक्ति नहीं थोरी रे ॥ हे आतमा० ॥१॥ जैसी जोति सिद्ध जिनवरम, तैसी ही मोरी रे॥ हे आतमा०॥२॥ जड़ नहिं हुवो फिरे जड़के वसि, के जड़की जोरी रे ॥ हे आतमा० ॥३॥ जगके काजि करन जग टहलै, वुधजन मति भोरी रे॥ हे आतमा०॥४॥
वावा! मैं न काहू का, कोई नहीं मेरा रे॥वावा० ॥टेका सुर नर नारक तिरयक गतिमैं, मोको करमन घेरा रे ।। वावा० ॥१॥ मात पिता सुत तिय कुल परिजन, मोह गहल उरझेरा रे। तन धन वसन भवन जड़ न्यारे, हूं चि१ पौर-घर । २ धूल ।

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