Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
View full book text
________________
( १९ )
अत्र अरज मेरी कहूं । भवभवमैं तुमरे चरननको, बुधजन दास सदा हि बन्यौ रहुं ॥ नैन० ॥ २ ॥
(x2) राग- पूरवी जल्द विनालो ।
हरना जी जिनराज, मोरी पीर ॥ हरना०॥ टेक ॥ आन देव संये जगवासी, सरयाँ नहीं मेरो काज ॥ हरना० ॥ १ ॥ जगमें बसत अनेक सहज ही, प्रनवत विविध समाज । तिनप इष्ट अनिष्ट कल्पना, मैटोगे महाराज ॥ हरना० ॥ २ ॥ पुद्गल राचि अपनपौ भूल्यौ, विरथा करत इलाज । अत्रहिं जथाविधि वेग वतावो, बुधजनके सिरताज ॥ हरना० ॥३॥ (xx) राग- पूरवी ।
भजन विन यों ही जनम गमायो || भजन० ॥ टेक ॥ पानी पैल्यां पाल न बांधी, फिर पीछे पछतायो ॥ भज० ॥ १ ॥ रामा-मोह भये दिन खोबत, आशापाश वधायो । जप तप संजम दान न दीनों, मानुप जनम हरायो ॥ जन० ॥ २ ॥ देह सीस जब कापन लागी, दसन चलाचिल थायो । लागी आगि भुजावन कारन, चाहत कूप खुदायो || भजन० ॥ ३ ॥ काल अनादि गुमायो भ्रमतां, कबहुँ न थिर चित ल्यायो । हरी विषयसुखभरम भुलानो, मृगतिसना वग धायो ॥ भजन० ॥ ४ ॥
(४५) राग- पूरवी ।
तारो क्यों न, तारो जी, म्हें तो थांके गरना आया ॥ के चारों ओर जो बँधिया बाबते हैं ।
१ पहले, पूर्वमें ।
"
·

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115