Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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दार
(२५) रवि, केवलज्ञान निहारौ ॥ त्रिभुवन० ॥२॥ त्रिविध शुद्ध भवि इनकी पूजौ, नाना भक्ति उचारौ । कर्म काटि वुधजन शिव लै हौ, तजि संसार दुखारौ ॥ त्रिभु० ॥३॥
(५९)
राग-दीपचंदी। मेरी अरज कहानी, सुनि केवलज्ञानी ।मेरी० ॥टेक॥ चेतनके सँग जड़ पुद्गल मिलि, सारी वुधि वौरानी । मेरी० ॥१॥भव वनमाहीं फेरत मोकौं, लख चौरासी थानी । कौलौं वरनौं तुम सब जानो, जनम मरन दुखखानी ।। मेरी० ॥२॥ भाग भलेतें मिले वुधजनको, तुम जिनवर सुखदानी । मोह फांसिको काटि प्रभूजी, कीजे केवलज्ञानी । मेरी० ॥३॥
तेरी बुद्धिकहानी, सुनि सूद अज्ञानी ।। तेरी० ॥ टेक।। तनक विषय सुख लालच लाग्यो, नंतकाल दुखखानी ॥ तेरी० ॥१॥ जड़ चेतन मिलि वंध भये इक, ज्यौं पयमाही पानी । जुदा जुदा सरूप नहिं मान, मिथ्या एकता मानी ॥ तेरी० ॥२॥हूं तो वुधजन दृष्टा ज्ञाता, तन जड़ सरधा आनी । ते ही अविचल सुखी रहेंगे, होय मुक्तिवर प्रानी ।। तेरी० ॥३॥
(६१)
राग-ईमन । तू मेरा कह्या मान रे निपट अयाना ॥ तू० ॥ टेक ॥ भव वन वाट मात सुत दारा, वंधु पथिकजन जान रे।

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