Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 34
________________ (२०) टेक ॥ विधना मोकौं चहुँगति फेरत, बड़े भाग तुम दरशन पाया ।। तारो० ॥१॥ मिथ्यामत जल मोह मकरजुत, भरम भौरमैं गोता खाया । तुम मुख वचन अलंबन पाया, अब वुधजन उरमैं हरषाया ॥ तारो० ॥२॥ भवदधि-तारक नवका, जगमाही जिनवान ।। भव० ॥ टेक ॥ नय प्रमान पतवारी जाके, खेवट आतमध्यान ।। भव० ॥१॥ मन वच तन सुध जे भवि धारत, ते पहुँचत शिवथान । परत अथाह मिथ्यात भँवर ते, जे नहिं गहत अजान ॥ भव०॥ २॥ विन अक्षर जिनमुखते निकसी, परी वरनजुत कान। हितदायक वुधजनकों गनधर, गूंथे ग्रंथ महान ॥ भव०॥३॥ 4 राग-धनासरी धीमो तितालो। प्रभु, थांसू अरज हमारी हो ॥ प्रभु० ॥ टेक ॥ मेरे हितू न कोऊ जगतमैं, तुम ही हो हितकारी हो ॥ प्रभु० ॥१॥ संग लग्यौ मोहि नेकून छोड़े, देत मोह दुख भारी। भववनमाहिं नचावत मोकों, तुम जानत हो सारी ॥ प्रभु०॥२॥ थांकी महिमा अगम अगोचर, कहि न सकै बुधि म्हारी। हाथ जोरकै पाय परत हूं, आवागमन निवारी हो ॥ प्रभु०॥३॥ (४८) तथायाद प्यारी हो, म्हांनै थांकी याद प्यारी । हो म्हांनै टेक॥ भात तात अपने स्वारथके. 'तम हित पररप..

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