Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 23
________________ पुर्ने पापो रे ॥ तू० २॥ जग स्वारथको कोइ न तेरो, यह, निहचै उर थापो । वुधजन ममत मिटावी मनतें, करि। मुख श्रीजिनजापो रे ॥ तू० ॥३॥ (१९) राग-आसावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। थे ही मोने तारो जी, प्रभुजी कोई न हमारो॥थे ही० ॥ टेक ॥ हूं एकाकि अनादि कालते, दुख पावत, हूं भारोजी॥थे ही०॥१॥विन मतलवके तुम ही स्वामी, मतलवको संसारो । जग जन मिलि मोहि जगमै राखे, तू ही कादनहारो॥थे ही० ॥ २॥ वुधजनके अपराध मिटावो, शरन गह्यो छै थारो। भवदधिमाहीं डूबत मोको, कर गहि आप निकारो॥थे ही० ॥३॥ (२०) राग-आसावरी मांझ, नाल धीमो एकतालो। प्रभूजीअरज ह्मारी उर धरोप्रभू जी०॥टेक॥ प्रभू जी नरक निगोद्यांमै रुल्यो, पायौ दुःख अपार॥ प्रभूजी०॥॥ प्रभू जी, हूं पशुगतिमैं ऊपज्यो, पीठ सह्यौ अतिभार । प्रभू जी० ॥ २॥ प्रभू जी, विपय मगनमें सुर भयो, जात न जान्यो काल ।। प्रभू जी०॥३॥प्रभू जी, नरभव कुल श्रावक लह्यो, आयो तुम दरवार ॥ प्रभू जी० ॥४॥ प्रभू जी, भव भरमन वुधजनतनों, मेटौ करि उपगार ॥ प्रभू जी० ॥ ५॥ १ पुण्य-शुभ म।

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