Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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( ७ )
(०१४ ) राग बिलावल धीमो तेतालो ।
नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐसा काज न करना हो ॥ नरभव० ॥ टेक ॥ नाहक ममत ठानि पुद्गलसी, करमजाल क्यों परना हो ॥ नरभव० ॥ १ ॥ यह तो जड़ तू ज्ञान अरूपी, तिल तुप ज्यों गुरु चरना हो । राग दोप तजि भजि समताक, कर्म साथके हरना हो । नरभव० ॥ २ ॥ यो भव पाय विषय-सुख सेना, गज चढ़ि ईधन ढोना हो । बुधजन समुझि सेय जिनवर पद, ज्यौ भवसागर तरना हो ॥ नरभव० ॥ ३ ॥
(१५)
राग-विलावल इकतालो ।
सारद ! तुम परसादतै, आनंद उर आया ॥ सारद० ॥ टेक ॥ ज्याँ तिरसातुर जीवकौं, अम्रतजल पाया ॥ सारद० ॥ १ ॥ नय परमान निखेपतैं, तत्त्वार्थ बताया। भाजी भूलि मिथ्यातकी, निज निधि दरसाया ॥ ॥ सारद० ॥ २ ॥ विधिना मोहि अनादितें, चहुँगति भरमाया । ता हरिवेकी विधि सबै, मुझमाहिं बताया ॥ सार० ॥ ३ ॥ गुन अनन्त मति अलपतैं, मोपै जात न गाया । प्रचुर कृपा लखि रावरी, बुधजन हरपाया ॥ सारद० ॥ ४ ॥
(१६)
गुरु दयाल तेरा दुख लखिकें, सुन लै जो फुरमात्रै है ॥ गुरु० ॥ तोमै तेरा जतन बतावै, लोभ कछू नहिं

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