Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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( १६ ) गान मनोहर, अनहद झरसौं वरस्योरी ॥ निज० ॥४॥ देखन आये वुधजन भीगे, निरख्यौ ख्याल अनोखोरी ॥ निज० ॥५॥
- राग-राहरि सारंग जलद तेतालो।
मोकौं तारो जी तारो जी किरपा करिकै ॥ मोकौं। ॥ टेक ।। अनादि कालको दुखी रहत हूं, टेरत हूं जमतें डरिकै ॥ मोका० १॥ भ्रमत फिरत चारौं गति भीतर, भवमाही मरि मरि करिकै । डूवत अगम अथाह जलधिमैं, राखो हाथि पकरि करिकै। मोकौं० ॥२॥ मोह भरम विपरीत वसत उर, आप न जानों निज करिकै ।तुमसव ज्ञायक मोहि उवारो, बुधजनको अपनो करिकै ॥ मोकौं० ॥३॥
राग-सारंग। 0 . हम शरन गयौ जिन चरनको ।। हम० ॥ टेक ।। अव औरनकी मान न मेरे, डर हु रह्यो नहिं मरनको ॥ हम ॥ १॥ भरम विनाशन तत्त्वप्रकाशन, भवदधि तारन तरनको । सुरपति नरपति ध्यान धरत वर, करि निश्चय दुख हरनको ॥ हम० ॥२॥ या प्रसाद ज्ञायक निज मान्यौ, जान्यौ तन जड़ परनको । निश्चय सिधसो पै कपायतें, पात्र भयो दुख भरनको ॥ हम ॥३॥ प्रभु विन और नहीं या जगमैं, मेरे हितके करनको। वुधजनकी अरदास यही है, हर संकट भव फिरनको/ हम० ॥४॥
१ मिद्ध भगवान सरीखा। ।
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