Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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( ६ )
॥ टेक ॥ ज्यौं तिरषातुर अम्रत पीवत, चातक अंबुद धार ॥ वानी सुनि० ॥ १ ॥ मिथ्या तिमिर गयो ततखिन ही, संशयभरम निवार । तत्त्वारथ अपने उर दरस्यौ, जानि लियो निज सार ॥ वानी सुनि० ॥ २ ॥ इंद नरिंद फनिंद पेदीधर, दीसत रंक लगार । ऐसा आनँद बुधजनके उर, उपज्यौ अपरंपार ॥ वानी सुनि० ॥ ३ ॥ ( १२ )
राग- अलहिया । चन्दजिनेसुर नाथ हमारा, महासेनसुत लगत पियारा ॥ चन्द० ॥ टेक ॥ सुरपति नरप्रति फनिपति सेवत, मानिमहा उत्तम उपगारा । मुनिजन ध्यान धरत उरमाहीं, चिदानंद पदवीका धारा || चन्द० || १ || चरन शरन बुधजन जे आये, तिन पाया अपना पद सारा । मंगलकारी भवदुखहारी, स्वामी अद्भुतउपमावारा ॥ चन्द० ॥ २ ॥ (१३)
राग- अलहिया बिलावल - ताल धीमा तेताला ।
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" करम देत दुख जोर, हो साईंयां ॥ करम० ॥ टेक ॥ कैइ परावृत पूरन कीनैं, संग न छांड़त मोर, हो साइँयां ॥ करम० ॥ १ ॥ इनके वशतैं मोहि बचावो, महिमा सुनी अति तोर, हो साईयां ॥ करम० ॥ २ ॥ वुधजनकी विनती तुमहीसौं, तुमसा प्रभु नहिं और, हो साईंयां
॥ करम० ॥ ३ ॥
१ मेघ २ पदवीधर ।
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