Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 18
________________ ( ४ ) सेवत, मुनि सेवत रिधिधारी जी ॥ हे० ॥ १ ॥ लखि अविकारी परउपगारी, लोकालोकनिहारी जी ॥ म्हे० ॥ २ ॥ सब त्यागी जी कृपातिहारी, बुधजन ले बलिहारी जी ॥ हे० ॥ ३ ॥ ( ७ ) राग - रामकली, जलद तितालो । या नित चितवो उठिकै भोर, मैं हूं कौन कहांतें आयो, कौन हमारी ठौर ॥ या नित० ॥ टेक ॥ दीसत कौन कौन यह चितवत, कौन करत है शोर । ईश्वर कौन कौन है सेवक, कौन करे झकझोर || या नित० ॥ १ ॥ उपजत कौन मरे को भाई, कौन डरै लखि घोर । गया नहीं आवत कछु नाहीं, परिपूरन सव ओर ॥ या नित० ॥ २ ॥ और औरमैं और रूप है, परनति करि लइ और । स्वांग धरैं डोलौ याहीतैं, तेरी बुधजन भोरे ॥ या नित० ॥ ३ ॥ (-6) / श्रीजिनपूजनको हम आये, पूजत ही दुखद मिटाये ॥ श्रीजिन० ॥ टेक ॥ विकलप गयो प्रगट भयो धीरज, अदभुत सुख समता वरसाये । आधि व्याधि अब दीखत नाहीं, धरम कलपतरु ऑगन थाये ॥ श्रीजिन० ॥ १ ॥ इते मैं इन्द्र चक्रवति इतमैं, इतमैं फनिंद खरे सिर नाये | मुनिजनवृन्द करें श्रुति हरषत, धनि हम जनमैं पद परसाये ॥ श्रीजिन० ॥ २ ॥ परमौदारिकमैं परमातम, १ शब्द | २ भोलापन - मूर्खत्व |

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