Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 17
________________ ( ३ ) || और० ॥ टेक ॥ चलन हलन थल वास एकता, जात्यान्तरतें न्यारा न्यारा ॥ और० ॥ १ ॥ मोहउदय रागी द्वेषी है, क्रोधादिकका सरजनहारा । भ्रमत फिरत चारों गति भीतर, जनम मरन भोगत दुख भारा ॥ और० ॥ २ ॥ गुरु उपदेश लखै पद आपा, तबहिं विभाव करें परिहारा । है एकाकी बुधजन निश्चल, पावै शिवपुर सुखद अपारा ॥ और० ॥ ३ ॥ (५) राग-पताल तितालो ।. काल अचानक ही ले जायगा, गाफिल होकर रहना क्या रे || काल० ॥ टेक ॥ छिन हूँ तोकूं नाहिं वचावें, तौ सुभटनका रखना क्या रे || काल० ॥ १ ॥ रंच सवाद), करिनके कार्जे, नरकनमै दुख भरना क्या रे । कुलजन पथिकनिके हितकाजैं, जगत जालमैं परना क्या रे ॥ काल० ॥ २ ॥ इंद्रादिक कोउ नाहिं वचैया, और लोकेका गरना क्या रे । निश्चय हुआ जगतमें मरना, कष्ट परै तव डरना क्या रे || काल० ॥ ३ ॥ अपना ध्यान करत खिर जावें, तो करमनिका हरना क्या रे । अब हित करि आरत तजि बुधजन, जन्म जन्ममैं जरना क्या रे || ॥ काल० ॥ ४ ॥ (€) म्हे तो थांपर वारी, वारी वीतरागीजी, शांत छवी थांकी आनंदकारी जी ॥ हे० ॥ टेक ॥ इंद्र नरिंद्र फनिंद मिलि १ अन्य लोगोका | *

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