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पेथापुर कोन्फरन्स.. जिनको अपनी महासभानें अपने हाथमें लिये हैं. अगरने इस विषयोंपर अपने बुद्धिवान् भाईयोंने छटादार भाषण देकर श्रोताओंकी प्यासको अपनी शुशोभित ध्वनिद्वारा अमृतपान कराकर तृप्त किया है तौमी अपने इस प्रान्तके और खास करके उन भाईयोंके निमित्त कि जो अपनी महासभाके जलसोंमें शामिल नहीं होसकेहैं किंचित उन विषयोंपर विवेचन करना मुनासिब समझताहूं कि जिनकी इस समय अपने इस प्रांतके भाइयोंके सुधारेके वास्ते आवश्यक्ता समझी जाती है.
___ सजनो ! सबसे पहिले में आपका ध्यान “निराश्रिताश्रय के विषयकी तरफ खेंचना चाहताहूं अगरचे जोजो विषय अपनी महासभामें जिसजिस आरडरमें चर्चे गये हैं उनके खिलाफ इस जगहमें इस विषयको सबसे लेताहूं परंतु इस पर पहिलेही पहिले विचार करना बहुत जरूरी है. एक पुन्यवान धनाढय मनुष्यके परिवार में सो सवासो मनुष्यये उनके रहने के वास्ते उस भाग्यवानने द्रव्य खर्च करके एक बडा बाग लगाया और उसमें अनेक प्रकारके मेवोंके और फूलोंके दरख्त लगाये उसही बागमें उनके आरामके वास्ते एक आलीशान मकान बनाया. पहननेके वास्ते उम्दा २ कपडे और गहने बनवाये, कई तरह की सवारीयां तय्यार कराई गरजके उसने बेशुमार धन खर्च कर अपने कुटुम्बको आराम देनेकी नियत से सब सामान तय्यार किया इतनेहीमें महामारीके पंजेमें आकर उस मनुष्यका कुटुम्ब सब नष्ट हो गया. ख्याल कीजये कि उस मनुष्यके दुःख की सीमा कहां कायमकी जा सकतीहै. इसही तरहपर चाहो हम केलवणीमें तथा जीवदयामें तथा डाइरेक्टरीमें तथा हानिकारक रीतरिवाजको दूर करने वगरहमें बेशुमार द्रव्य खर्च कर सुधारा करले परंतु जब उनका अनुभव करनेवाला प्राणि नष्ट हो जायगा तो क्या हमारी हालत अफसोसके लायक नही हो जावेगी? इस लिये पहिले वह साधन करने चाहीये कि जिनसे अपनी समाजकी स्थितीको नुकसान पहुंचकर अगर तरक्की भी न हो तो हालत मौजूदापर तो बनी रहै. पूर्व कालके महा प्रतापी आचार्योंने अपने तपोबलसे लाखों जीवोंको प्रतिबोध कर जैनी किये हैं आजकल वह रस्ता 'बिलकुल बंध है इस कारण अपनी समाजमें आदमी ज्यादा बढनेकी आशा करना तो अवकाश के फूल या घोडेके सींगवत है परंतु जो मोजूद है उन की संभाल करना हर जैनीका प्रथम कृत्य है. अपन लोग प्रायः करके महाजनी काम करते है इन दिनोंके दुकालोने तथा खोटे खोटे रीतरिवाजोंने अपने स्वामिभाईयोंकी दशा खराब करदीहै. बहुतसे मरगये बहुतसे भूखे मरते हुवे स्वधर्मको छोड-कर रोटीयोंके लालच अन्य धर्मको गृहण कीया है. कितनी बडी शरमकी बातहै कि अपने लोग दिनमें अपनी २ शक्तिके मुवाफिक पेटभरकर मेवा मिष्टानका भोजन करें और अपने स्वामीभाई भूखे मरते हुवे इस चिंतामणी रत्नको हाथसे छोडकर अन्य धर्मको ग्रहण करें ? कितने बडे भारी शरमकी बात है कि जैनीयोंकी तरफसे ढोरोंपर तो दया लाई जाकर जगह जगह ढोरोंके आरामके वास्ते पांजरापोलें खोलीजायें और अपने स्वामीभाईयोंके ढोरोंसेभी कमदरजेके समजेजाकर उनकेवास्ते कोई आश्रम न खोला जावे. गाङर मुवाफिक इसवक्त अपनी गती होरही है परन्तु जबतक उसगती को न छोडा जावेगा अपना भला हरगिज नहीं होसकता है, मेरे इस कथनसे मेरा यह मनशा हरगिज न समझा जावे कि में प्रांजरापोलके खिलाफ हूं. बलके मेरा कथन यह है कि पहिले अपनी डाढीकी आग बुझाकर अपने पडोसकी डाढीकी आग बुझायेंगे तो अपना कल्याण होगा और अगर पहिले अपने पडोसीकी डाढीकी आग बुझाने दौडेंगे तो न तो उसकी आग बुहासकेंगे न अपने प्राणको अपनी डाढीकी आग पहिले न बुझानेसे बचासकेंगे, असही तरहपर हमारा इस वक्त उत्कृष्ट फर्ज है कि हमारे भाईबन्धोंमें जो भूखकी आग लगीहै.