Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Author(s): Gulabchand Dhadda
Publisher: Jain Shwetambar Conference

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Page 283
________________ १९०५ ] प्रांतिक कोनफरन्सोंकी आवश्यक्ता. प्रान्तिक कोनफरन्सों की आवश्यक्ता. -:०: २६१ जैन समुदाय के बुद्धिवानोनें समयानुसार अपनी कोम और धर्मकी उन्नति करनेके अभिप्रायसे कुल जैन समाजके प्रतिनिधियोंकी सभा इकठी की और सबके इत्तफाक से धार्मिक और सामाजिक सुधार के प्रस्ताव किये. और कुल प्रतिनिधियों को इन प्रस्तावों के मुवाकिक खुद पाबंद रहनेकी और अपने २ स्थानों पर पहुंचकर अपने गांव, शहर और जिलाके कुल समुदायको इन ठहरावोंके मुवाफिक वर्तनेंकी प्रेरना करनेकी सूचना की गई. इस सूचना के मुवाफिक कई सज्जनोंनें कोशिश की परन्तु उनके प्रथक २ सूक्ष्म प्रयाससे वह नतीजा शीघ्र पैदा होना असंभव था कि जिसको कइ सज्जन बहूत जल्द देखकर खुश होना चाहते थे, इस लिये कइ स्थानीक विद्वानोंनें अपने प्रान्तके बडे छोटे स्वामी भाइयोंका ध्यान इस मामलेकी तरफ खेंचा और इस सुधारेके काम की तरफ उन लोगूकी लागणी जागृत करने के मनोरथसे प्रान्तिक सभावोंका होना निहायत ही जुरुरी समजा. जनरल कोनफरन्समें सिर्फ साधारण रीति से अनुवाद हो सकता है और इसके बतलाये हुवे कामका हर प्रान्तमें प्रचार होना उन प्रान्तोंके सज्जनोंकी सहायता, धर्म लागणी और श्रम पर ही निर्भर है.. महालभामें गिने गांठे खास खास मनुष्य शामिल होसकते हैं; प्रान्तिक सभामें उस प्रान्तके मनुष्य जो चाहवे कम खर्चके साथ उस सभा में हाजर होकर वहांके काम काजको अछी तरह देखकर जनरल कोनफरन्सके काम काजका अनुभव कर सकता है, और अपने प्रान्तमें बैठे हुवें ही उनको जनरल कोनफरन्सकी एक तरहकी सैर हो सकती है कि जिससे उनकी लागणी कोनफरन्सकी तरफ जागृत होकर वह लोग कोनफरन्सके काम काज की तरफ सम्मत हो सकते हैं. प्रान्तिक कोनफरन्सों के अभाव में महा सभाका वृतान्त सर्व साधारण तोर पर मालुम नहीं हो सकता है और जबतक महासभा के विचारे हुवे काम काज - का आम तौर पर असर न हो उस वक्त तक कोनफरन्सकी कार्य वाही सर्वाश साफल्य नहीं कही जा सकती है; न जिस हेतुसे श्रम उठाकर महासभा इकठी करनेका प्रयास किया जाता है वह हेतु पुरे तोर पर पार पड सकता है. अबतक बहूतसे प्रान्तोंके गांव ऐसे हैं कि जिन के श्रावक समुदायको मालूम नहीं है कि हमारे स्वामीभाई हमारी बहबुदिके वास्ते कितना श्रम उठा रहे हैं और अपने तन, मन और धनको लगाकर किस तरहपर सामाजिक और धार्मिकोन्नत्ति पर कमर बान्धे हुवे मोजूद हैं. मुनिमहाराज श्री हंस विजयजीनें अपने इस समय के कच्छ देशके विहारसे यह तजुर्बा हासिल किया है और खुदकी आंखों से देखा है कि वहांके जैनी श्रावक जमीनमें हल चलाकर कृषीका काम करके अपनी उदरपूर्णा करते हैं, ऐसी हालत में उन लोगोंको जनरल कोनफरन्सकी कार्यवाहीका हाल किस तरह पर

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