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२६४ जैन कोनफरन्स हेरल्ड..
[ ऑगष्ट ही तरह जितना सुधारा वधारा सांसारिक या धार्मिक करना चाहते हैं सब विद्याके अंतर्गत है. इस वक्त हमको एक अखबारकी बात याद आती है. और अगर गोर किया जावे तो वाकई यह बात दुरुस्त है--वह यह है कि एक शराब निषेधक मंडलोके पैरो अंग्रेजका एक के साथ मुवाहसा हुवा जिसमे अंग्रेजनें यह दलील पेशकी कि हम सिर्फ लोगोंका जमाव इकठ्ठा करके लेकचर देकर शरावकी बुराइ लोगोंके मगजमें ठसानेसे इतना फायदा नहीं समझते हैं कि जितना फायदा एक छोटेसे बच्चे के मगजमें उस बातके ठसानेसे हो सकताहै. बस नतीजा यह निकला कि जब बचपनसे बच्चेके दिलमें वह बाल ठस जावेगी तो खुद बख़ुद हि शराबकी जड काट दीजावेगी इस ही तरह पर जिन जिन बातोंका सुधारा करना जरूरी समझा जाता है उन उन बातों के करनेमें क्या क्या नुकसान हैं या क्या क्या फायदे हैं इन सब बातोंका खुलासावार बयान देकर पाठशालाबोंमें पढने लायक एक सीसीझ ( Series ) तय्यार कराया जावे और सब ठिकाने लड़कों और लडकियोंकी पाठशालामें वहही तालीम दीनावे जो खुद बखद तुम्हारे खयालातके पढे पढाये पुत्र जैन वीर खडे होजावेंगे और इतने अरसेमें पुराने खयालात वाले बिलकुल कमजोर होजावेंगे. आप अपने विचारे हुवे काममें बड़ी आसानीके साथ कामयाब हो जावेंगे मगर जबतक यह काम नहीं कियाजावेगा पुराणे खयालात वाले बुजुर्ग पढेलिखोंका पैर मुशकिल ही जमने देवेंगे. हालांकि इस वक्त तक तुम हरेक बातमें कामयाबी हांसल करते जाते हो मगर बाज बाज ठिकाने ऐसा भी मोका देखनेमें या सुननेमें आता है कि लेकचरर अपना हद बाहिर जोर लगाकर लोगोंके दिलमें कोई बात ठसाता है पीछेसे कोई कढी बीगाड ऐसा बोल पडता है कि जिससे जमा जमाया काम उखड जाता है. गरज कि सबसे पहिले तालीम पर ही जोर देना ठीक है. देखो, आर्य समाजियोंने ठिकाने ठिकाने अपने मदरसे जारी करके अपना प्रत्येक स्थान पर नया ही किला कायम कर दिया है कि जो आम मशहूर बात है और जैनियोंको तो फिलहाल जहां जहां जैनियोंकी बसती है-चाहो दस घरकी हो चाहो सो की चाहो हजारकी--वहां ही उद्यम करना उचित है और प्रत्येक स्थानके जैनीभाइ यथाशक्ति चंदा देनेसे इनकारी भी नहीं हैं फिर न मालूम काम 'दिल पसंद क्यों नहीं होता है ? इस वक्त अच्छे वक्ताके जगह जगह फिरकर चंदा एकत्र करनेवालेकी कमी है जैसे महसाणावाले शा बैणीचंद भाईने कमर बांधी है ऐसी कमर बांधने वाले दो चार भाई निकल आयें तो ६ मासमें हिन्दुस्थानके कुल जैनियोंका चंदा वसूल हो सकता है. हमारे लिखनेका आखीरी नतीजा यह ही है कि सबसे पहिले चंदा एकत्र करके छोटे बड़े सब ठिकाने जगह जगह पाठशालाका इन्तजाम होकर पूर्व सूचित प्रकारकी सीरीझ के जरियेसे बच्चोंके दिमागमें अपनी असली बातके ठसानेकी खास जुरूरत है जिसकी तरकीब मुम्बई, मूरत, बडोदा, भरूंच, अहमदाबाद, पाटण, राधनपुर, बीसनगर, कपडवंज, महंसाणा, खंभात, अजमेर, जोधपुर, जयपुर, कलकता, मुर्शिदाबाद वगरह बडे बडे शहरोंमें इस