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. जैन कोनफरन्स हरेल्ड.
[ऑकटोबर प्राप्ती कर सक्ते हैं नतु अन्य मार्गसे. और यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि ज्ञानही केवल मात्र आत्माको इस संसार रूपी समूद्रसे तारनेवाला है अन्य कोईभी नहीं अतएव जीर्ण जैनसिद्धान्तोंको जो ज्ञानकी माता और खान है शुद्धतासे नवीन लिखवाना और उपयुक्त स्थानमें वायु और सद्रिता (तरी ) आदिसे यत्न पूर्वक रक्षा करनी अहि आवश्यकीय है, इसीको जीर्ण पुस्तकोडार कहते हैं. इस लिये प्रत्येक जैनको यह उचित है कि वो, यदि हो सके तो जीर्ण पुस्तकोद्धार करावे नहीं तो जीर्ण पुस्तकाद्वार, करानेवालोंको यथाशक्ति तन, मन, और धनसे सहायता तो अवश्यही दे, क्यों कि शास्त्रोंके विद्यमान रहनेसेही ज्ञान और धर्मका विद्यमान रहना निश्चय है अन्यथा कदापि नहीं. सिद्धान्तोंमें ऐसा लिखा है कि " जीर्ण पुस्तकोद्वार करानेसे भविष्य जन्ममें ज्ञानकी प्राप्ती सुलभतासे होती है और प्रचुर पुण्यका संचार होता है ". त्रितीय-जीव दया-इस जगत्में जितने धर्म प्रचलित हैं उन सबका मुख्य सिद्धान्त यही है कि ' अहिंसा परमो धर्म ' अर्थात् इस संसारके तुच्छसे महा बलिष्ठ पर्यन्त प्राणी मात्रको हनना अर्थात् प्राण रहित करना नहीं, सर्व चोरासी लाख जीवा जूणकी यत्न पूर्वक रक्षा करनी, जैसे पांजरापोल-जिसमें सर्व तरहके पशुओंकी रक्षा होती है. दूसरा मार्ग यह है कि जिन २ कार्यों अथवा वस्तुओंके लिये पशु पक्षी वध किये जाते हैं उनको व्यवहारमें लाना सर्वथा निर्मूल करना चाहिये. जैसे कई पशु केवल चरबी हीके लिये बध किये जाते हैं, कई हड्डी ( अस्थि ) और दन्तके लिये, कई सुन्दर पंखो ( पर ) के लिये,कइ चर्मके लिये और कई ओशधियोंके निमित्त इत्यादिक अनेक कार्य और पदार्थोके निमित्त सहस्रों पशु पक्षी प्रतिवर्ष बध किये जाते हैं. अतएव सच्ची जीव दयाका पालना चार तरहसे होता है:-(१) स्वयम् किसी प्राणी मात्रको मारे नहीं, (२) अन्यसे कहके प्राणी मात्रकी हिंसा करावे नहीं, (३) हिंसा करनेवालोंकी अनुमोदना करे नहीं, (४) जिन २ वस्तुओंके लिये पशु पक्षी बध किये जाते हैं उनको व्यवहारमें लाये नहीं. जैसे बही खातोंके चर्मके पढे लगवाना
और कई हड्डीकी बनी हुई विलायती चीजोंको व्यवहारमें लाना इत्यादिक अनेक पदार्थ हैं. ऐसे जीव दयाके शुभ कार्योंसे जीवोंको अभयदान होताहै और मनुष्य मोक्षकी स्थिति बांधता है और अगले जन्ममें शुद्ध और निरोग शरीर धारण करता है. अब प्रत्येक जैनीको यही उचित है कि वह जीव दयाके पालनेमें अथवा जिन कार्योंसे जीव दया पलती है उनमें तन, मन और धनसे यथाशक्ति सहायता अवश्यमेवही दे. जैसे नीव दयाका सम्पूर्ण वर्णन 'हरीबल मच्छी' आदि जैन शास्त्रोमें कियाहै. चतुर्थ-निराश्रितं जैन, जैन मतावलम्बी अर्थात् स्वधर्मी पुरुष,स्त्री,बालक, और बालिका जो निराश्रित अर्थात् निसके माता, पिता, भ्राता, भगिनी, और कोई कुटुम्बी आदि किसी