Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख संग्रह
६७ मथुरा-प्राकृत-भन्न ।
[वर्ष ९३] अ नमो अर्हतो महाविरस्य स० ९० ३ [व]
व १. शिष्यस्य ग [णि] स्य [न] न्दिये [नि ] वर्त्तना देवस्य हैरण्यकस्य धितु ।
२ "f- [भ] - वतो वर्द्धमानप्रतिमा प्रति .... .. पुजा [ये] [[] ___ अनुवाद-अर्हत् महाविर (महावीर) को नमस्कार हो । वर्ष ९३, वर्षाऋतुका (महीना), • के शिष्य गणी नन्दीके आदेशसे [ अर्हत की] पूजाके लिये, हैरण्यक ( सुनार) देवकी पुत्री • ने भगवान् वर्द्धमा. नकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा कराई।
[El, II, n° IIV, n° 23]]
मथुरा-प्राकृत।
[वर्ष ९५] १ [f] सद्ध स ९० ५ [१] नि २ दि १० ८ कोट्टि [य] | तो गणातो ठानियातो कुलातो वइर [T तो गा] खातो अयं अरहं."
२ शिशिनि धाम [ था ] ये निर्वर्तन [1] ग्रहदतस्य धि [तु] धनहथि __ अनुवाद-सिद्धि हो । ९५ वे (?) वर्षके ग्रीष्मऋतुके दूसरे महीनेके १८ वें दिन, धामथाके आदेशसे ग्रहदत्तकी पुत्री, धनहथि (धनहस्ती) की पत्नी का [ दान किया गया]। धामथा कोटियगण, ठानिय कुल, वइरा शाखाके अयं अरह [दिन] की शिष्या थी।
[ El, 1, n° XLIII, n° 22]