Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख संग्रह { ॥] तदागामिभिरस्मदृश्यैरन्यैश्च राजभिरायुरैश्वर्यादीना विलसितमच्छिराशुचञ्चलमवगच्छद्भिराचन्द्रार्कघरापर्णवस्थितिसमकाल यशश्चिचीशुभिः स्वदत्तिनिविशेष परिपालनीयमुक्त च मन्वादिभिः ।।
बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजमिस्सगरादिभियस्य यस्य यदा भूमिः तस्य तस्य नदा फलम् । ख दातु सुमहच्छक्य दु.खमन्यस्य पालन दान वा पालन श्रेयो श्रेयो दानस्य पालनम् ॥ स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् । पष्टिं वर्पसहस्राणि विष्टाया जायते कृमिः ।।
[इ ए, ७, पृ० २०९-२१७, न. ४४ ]
[इस दानपत्रमें पुलिकेशीकी वंशावलि उसके पितामह (वाबा) जयसिंह और उसके पिता रणराग से लेकर दी हुई है। ऊपर विरुदावलिमें यह चाक्यावली आती है, 'जयसिंहस्य राजसिंहस्य सूनु, रणरागोऽभवत्जिमसे सर वाल्टर इलियटने सन्देहास्पदरूपसे यह फलितार्थ निकाला है कि 'राजसिंह' जयसिंहका दूसरा नाम था । पर यदि 'राजसिंह' यह व्यक्तिवाचक नाम हो भी, तो इससे जयसिंहकी उपाधिका ही पता लगेगा, जयासिंहके दूसरे नामका नहीं।
तत्पश्चात् दानपत्रमें उसके (जयसिंहके) एक सामन्त सामियारका उल्लेख है जो रुन्दनील-सैन्द्रक वंशका है। यह सामियार कुहुण्डी जिलेका शासक था। इसके याद यह वर्णन है कि सामियारने अलक्तकनगरमें, जो कि उस जिलेके ७०० गावोंके समूहोंमें एक प्रधान नगर था, एक जैनमन्दिर चनवाया, और राजाज्ञा लेकर, विमव संवत्सरमें जब कि शकवर्ष ४११ व्यतीत हो चुका था वैशाख महीने की पूर्णिमाके दिन चन्द्रग्रहणके अवसरपर कुछ जमीन और गाँव मन्दिरको दिये।