Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख-संग्रह हाल भी बताता है । हम देखते है कि रहोमे प्रथस जिसने कि प्रमुख अधिकारी होनेका पढ़ पाया था मेरडका पुत्र पृथ्वीराम था । उसको यह प्रमुख अधिपति होनेका पट राष्ट्रकूट राजा कृष्णकी अधीनतामें मिला था। इससे पहिले वह पूज्य ऋषि मैलापतीर्थक कारेय गणमें सिर्फ एक वार्मिक विद्यार्थी था । इस शिलालेखमें कृष्णराजदेवकी उपाधियाँ चालुक्य राजाओंके समान ही है तथा चक्रवर्तीकी उपाधिया है, और हम यह भी देखते हैं कि गफ ७९८ में, जो मन्मथ संवत्सर था सुगन्धवर्तिसे उसने एक जिनमन्दिर बनवाया, और इसके लिये १८ 'निवर्तन' भूमि दी। किन्तु यह लेस किसी उत्तरवर्ती समयसे खोदा गया होगा, क्योकि प्रथम चार पक्तियोसे राजा कन्नके जो कि पृथ्वीरामके " या ६ पीढी आगे हुआ है, एक दानका उल्लेख आता है । यह दान सुगन्धवर्तिके मुलुगुन्टके 'सीवट' में किया गया था।
लेखका वशावलीका भाग लेस न० २३७ की 'रवशोद्भव रयातो' पक्तिले शुरू होता है। प्रथम नाम ननका आया है। उसका पुत्र कार्तवीर्य था जो चालुक्य राजा आहवमल्ल या सोमेश्वरदेव प्रथमके अधीन था। सोमेश्वरदेव प्रथमका काल सर डब्ल्यू इलियट (Sn W. Eliot) ने गक ९६२ (ई. १०४०-१) से लेकर शक ९९१ (ई. १०६९-७०) दिया है और इसी लेखसे यह पता चलता है कि कार्तवीर्यने ही कुहुण्डी (जो कि उत्तरवर्ती लेखोका 'कुण्डी तीन हजार है) की सीमाये निर्धारित की थीं। इसके बाद तीन पीढी बीतनेपर चौथी पीढीमे कार्तवीर्य द्वितीयका नाम आता है । यह चालुक्यराजा त्रिभुवनमल्लदेव, पेर्माडिदेव या विक्रमादित्य द्वितीय था।]
[JB, X, p 194-198, ins n° 2, 1st part]
विलियर-कन्नड ।
[शक ८०९-८८७ ई०] भद्रमस्तु जिनशासनाय (1) शक-नृपातीता (न) काल-संवत्सरगळे१ मूल लेखमें, "शक कालके ७९७ वर्ष व्यतीत होने पर" है।