Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख संग्रह मुनीन्द्र (पं. ९), या सिरिणन्दि (पं. १७) नामके गुरु थे जो सर्व पदाथाके व्याख्यान करनेमें चतुर थे, जिनकी पटवी 'परवादिगरम-मेरण्ड' (प ६) थी । जब ये आचार्य, श्रीनन्दिपण्डित, तपश्चर्या में संलग्न थे, उनके शिष्य 'अष्टोपवालिगन्ति' (प. १०), या अष्टोपवास-कन्ति (पं. २९) थे, जो जिनधर्मके उद्धार करनेमें बहुत प्रसन्न ये । और इनको श्रीनन्दि पण्डितसे सात 'मत्तर' भूमिका 'नमस्य' दान मिला था और इस दानका उपयोग ध्वजतटाक (पं० १२) (गॉवके) १० भावुण्ड' सरदारोंकी त्रछायाके नीचे, पार्श्वजिनेश्वरकी पूजा तथा शास्त्र लिखनेवालोंके भोजनके प्रवधके लिये किया। इसके बाद लेखमें एक 'सेनयोर' या पटवारी सिझण्ण (प. १३), सिङ्ग (प. १४), या सिद्गव्य (प २२) का उल्लेख आता है जो जिनधर्मभक्त था। यह सिद्ध श्रीनन्दिका पटवारी था। - इसके बाद कथन है कि अनल संवत्सर, जो व्यतीत गक मं. ९९८ था,
की नाही या नाहीसे श्रीनन्दिपण्डितको गुडिगेरीकी भूमिमें पश्चिम दिगाके खेतोका अधिकार मिल गया था। ये खेत, एक तानपत्र के अनुसार, उस आनेसेजेय वसनिक जैनमन्दिरके अधिकारमें थे, जिसको श्रीमत् चालुक्यचक्रवर्ती विजयादित्यवल्लभकी छोटी बहिन कुकुममहादेवीने पहले पुरिगेरीमें बनवाया था। श्रीनन्दि पण्डितने इन खेत्तों से अपने शिष्य सिन्नय्य (प. २२) को, 'सर्वनमस्स दानके तौर पर, १५ मत्तर भूमि दी । सिङ्गस्यने यह भूमि गुडिगेरीले मुनियों के बाहारके प्रबन्धके लिये दे दी, और इस यातका ध्यान रखते हुए कि इसकी उत्पन्न इसी कार्यसे खर्च होती है, किसी दूसरे धर्म या कार्यमें खर्च नहीं होती, यह काम राजा, पण्डितो, १२ 'गावुण्ड' लोग, और शेष सभी धार्मिक लोगोंको (प २५) सौंप दिया । जबतक चन्द्र, सूर्य और समुद्र तथा पृथ्वी हैं वयत यह दान जारी रहे, यह वात भी निगाहमें रखनेके लिये इन लोगोंको कहा । इसके पश्चात् इस भूमिकी सीमायें दी हुई हैं।
उन्हीं पश्चिम दिशाके खेतोमेंसे श्रीनन्दि पण्डितने, लगान-मुक्त जमीनके रूपमें, ३२ गावुण्डोंको १३१ मचर (पं ३६), 'पेगडे' प्रभाकरय्यके पुत्र रहय्यको १५ मत्तर; सेनवोव हचण्णको १५ मत्तर (पं. ३८);